Tuesday 23 October 2012

गर्व से कहो मैं हिन्दू हूँ,
मैं अपने ही  भाइयो को
नीच और अछूत समझता   हूँ
जाति के नाम पर उनके साथ
घनघौर भेदभाव करता हूँ,
उन्हें हर बात पर प्रताड़ित  करता हूँ
उन्हें जानवरों से भी गया गुजरा
समझता हूँ ,
उनके द्वारा उगाई फसल
और उनके बेर तो खाता हूँ
मगर  उनसे बैर भी रखता हूँ
उनके हर हिस्से को निगल जाता हूँ,
यहाँ तक की अगर वे सर उठाये तो
सरेआम ज़िंदा जलाकर
तमाशा बना सकता हूँ,
उनकी स्त्रीयों की नाक
काट सकता हूँ ,
आओ, हम अपने पूर्वजों की
 विरासत को संभाले,
मुझे इस संस्कृति और सभ्यता को
आगे ले जाना हैं
मुझे गर्व हैं मैं हिन्दू हूँ ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,रवि विद्रोही

Sunday 15 July 2012

अच्छे लोगो की दोस्ती एक ऐसी ज्वाला है, जो आत्मा में अचानक सुलग उठती है और हृदय को तपाकर पवित्र बना देती है, दोस्तों के दिलो में उतर आती है और उसके आस्तित्व में चलकर लगाने लगती है ... .. दोस्ती  वाकई एक सच्ची और सीधे साधे पहुचे हुए फ़कीर   के सामान हैं ...अपने दोस्त मायामृग को देखकर मैंने कभी ये लाइन लिखी थी थी ..

मार्गस्थ महार्घ मन बंधन रुचिकर हैं
यादो के आसपास घूमते हैं कथानक बनकर
मृण्मय प्रतिनाद ह्रदय का आयतन बढाती है
गम्य पल बढ़ने दो धीरे धीरे ....................... रवि विद्रोही....

मार्गस्थ= रास्ते में मिलने वाले
महार्घ= महंगे
मृण्मय= दुनिया दारी
 प्रतिनाद= पहाडो में खुद की वापिस लोटकर  सुनाई वाली आवाज
मृण्मय  प्रतिनाद=संसार में अच्छी या बुरी हमारी आवाज समय समय पर हमको वापिस सुनाई पड़ती हैं ... ह्रदय का आयतन यानी जिसको सुनकर   गम या खुशी  के अहसास में डूबते हैं ..ये अच्छी बुरी प्रतिध्वनी जब हम सुनते हैं हमारे दिलो की धडकण को बढ़ा देती हैं
गम्य पल= सिखने वाला समय

अब हर लाइन का प्रथम अक्षर मिलाइए  ..( मार्गस्थ का मा ..यादो का या  ...मृण्मय का मृ ...गम्य का ग ...).हां हां हां बन गया ना मायावी हिरण यानी यानी मायामृग 
  ....................... रवि विद्रोही....
 खून सने शब्द

नाखून जब शब्द लिखते हैं
रक्त शिराएँ में उबाल आता हैं
रूह बंद हैं ताबूतो में,
इंसान
सभ्यताओ से सवाल करता हैं
इंसानों ने सभ्यताओ की
चादर ओढ़ रखी हैं
रात का अन्धेरा
सभ्यताओं की गहराई नापता हैं
और सुबह का उजाला
इंसानों का प्रवाह देखता हैं ........................RV
स्वपन

स्वपन तब भी थे
जब रात काली थी
स्वपन आज भी हैं
जब दिन का उजाला हैं
आव्वाक रह जाता हूँ
जब लक्षमण रेखा
मटमैले रंग से
लाल रंग में परवर्तित होती हैं
इंगित सपने काषाय रंग बनकर
गद्दारी करते हैं ......................रवि विद्रोही
 हारा हुआ देवता

हे धूर्त चपटी
तुम्हारा चन्दन का टीका
मेरी कुदाल से ज्यादा
उपयोगी नहीं ,
लोक परलोक की बेहूदा बाते
तुम्हारे चालाक दिमांग का ही हिस्सा हैं
जो तुम्हारा पेट पालती हैं
मुझे पता है
तुम्हारे जनेऊ में
मरी हुई जुओं की
गंध आती है
जिनमे जीवन का नहीं
मौत का भय दिखता है ,
तुम उस जन्म के लिए नहीं
अपितु इस जन्म के सुख और भोग में विलुप्त
बिना पसीना बहाए खाने वाले परजीवी हो
मेरे देह का पसीना
और मेहनत से बने पसीने की सुगंघ
तुम्हारे सड़े हुए जनेऊ
और उब्काऊ श्लोको से
लाख गुना बहतर है ,
आओ , मेरे पसीने से
अपने बदन को रगडो
मेरे साथ देवताओं के नहीं
इंसानों के गीत गाओ
खुशबू अपने आप आयेगी
महसूस करो
कि बू की कोई भाषा नहीं होती
और गंध का कोई वजूद नहीं होता ...........रवि विद्रोही
 उदय हुआ सवेरा

बंगाल की खाड़ी के पानी पर
जब सूरज चमकता हैं
कोलाहल का बड़ा सा रेला
पश्चिम की और भागता हैं
शहरो में हलचल होती हैं
अरब सागर त्योरियाँ चढ़ाए बैठा है
सुबह उसे कोई पूछता ही नहीं
छोटी चिड़ियाँ किरणों को देखकर
इधर उधर फुदकती हैं
पुजारी गुस्से से भरा
मूर्तियों को आँख फाड़ फाड़ कर देखता
बडबड़ाता हैं पप्पू की माँ
एक नहीं अनेक रेशमी साड़ी तेरी देह पर
चमकती
यदि लोग और भी धार्मिक बनते
कमबख्त अभी तक एक भी नहीं आया
धूप में बैठा मरियल खाजल कुत्ता
पुजारी के कथन को ध्यान से सुन रहा हैं
दुसरे कुत्ते एक दुसरे की टांग सूँघकर
रात में हुई खुशखबरी को सूना रहे हैं
जग रतनी माँ को कोसती हुई
तमछन्न मन से पानी को निकली
माँ का जल्दी सुबह उठाना उसे
कभी भी अच्छा नहीं लगा
जवानी में सपने भौर में अच्छे लगते हैं
बाबू पहलवान
अभी भी पसीने तर बतर हैं
दंड पेलना अभी भी जारी हैं
सुबह का जागना मुझे भी कभी
अच्छा नहीं लगा
हवा रेगती हुई मुझे जगाती हैं
हे धुप तुम्हारी ताकत को
सोना नसीब ही नहीं
जब तुम रेंगती हो
नींद कोसो दूर भाग जाती हैं
ढलानों पर अभी भी
मजदूर कारखाने से निकल रहे हैं
धूप की कठोर चित्त दाह के साथ
सोने के लिए .......................................रवि विद्रोही
 उमंग

उमंग परिभाषित हैं
और मन अनंत
पत्थर तू जोर से हिल
जीवन अभी भी
टस से मस नहीं हैं
उमंग का आना
कौन परिभाषित करेंगा
ऊपर से नीचे आना उमंग हैं
या नीचे से ऊपर जाना
पर उमंग होती हैं लुभावावानी
आओ उसे पकडे ..
कस कर ................रवि विद्रोही

Friday 13 July 2012

आबाधा सत्य मुस्काता हैं
कोष्ठबद्धता बिजलियों को कैद
करती हैं
उल्लम्ब छद्मरूप परिहास करता हैं
जब शिराएँ जन त्राता बनती हैं
आनंदित हैं असंयम
घनीभूत होती होठो की हंसी
प्रतारक में तब्दील हो रही हैं
जन समूह दिग्भ्रमित हैं
मैं उनमे राज्य स्वामित्व की इच्छा
जगाता हूँ
मेरी मनोदृष्टी शाब्दिक होकर
लक्ष वेद्धता को ललचाती नजरो से
देखती हैं
जन जन के चिच्छाक्ति जन पट्ठे
अभी भी
मुझे सुनहरी रोशनी ही समझते हैं
जो उनके भाग्य को बदलेगी
आसमान कितना भी साफ़ हो
धरती की प्रतिछाया से दूर ही रहता हैं
प्रकाश छिद्रों से आती रोशनी
अनेक रंगों में सुज्जजित हैं
मगर परछाई का रंग
एक सा ही रहता हैं
मेरे मन की कुदृष्टी मेरे अलावा
किसी को दिखाई नहीं देती
प्रतिसैन्य परतो का विशाल घेरा
उसकी रक्षा करता हैं .......................रवि विद्रोही


देवता सदा ही आरोहित रहे हैं
उनके दौड़ाने की चाह अतिशयता
को लांघती हैं
आगे निकलने की प्रक्रिया
व्याख्यान नहीं सुनती
सोचो कुछ दिन
धरो कुछ धीरज
अतिसुग्राहिता को पूरी तरह
समझ सकने वाले लोग
करोडो के शहर में भी
एक हाथ की अंगुली पर
गिने जा सकते हैं
पासा फेंकने वाले लोग
उपदेशको से दूर ही रहते हैं
सिंहासन आज भी दुर्बल हैं
अहिल्या आज भी रोती हैं
शचि कैसे सहन करती थी
दुर्बल देवताओं का छद्मरूप
आज भी
देवताओं से अवतरित
और देवताओं की पत्नी की योनी से
जन्म का झांसा
उपदेशको के प्रवचनों में
प्रबल वेग भर देता हैं ...................रवि विद्रोही

Monday 11 June 2012

कविता कितनी भी किलिष्ठ और साहित्यिक भाषा में कितनी ही प्रबल लिखी हो अगर वह भाषा पुराण, किंवदंती और मिथक एकेडेमिक्स में लिखी गई तो वह बुराई का प्रतीक हैं और उसका मर जाना ही बहतर हैं ..उस कविता का जीना भी क्या जो नैतिकता के पाश में ना बंधी हो..
प्रेम के नाम पर व्यभिचार और ऐय्याशी से भरा काव्यशास्त्र कूड़े में फेंकने लायक हैं

 समय के स्पन्दन और मुद्दों के कम्पन में
देखो कितना अंतर है
दोनों की शुभ्र कुटील मुस्कानों में
और आत्मीय स्नेह में
ना प्रश्न हैं ना उत्तर
बस इंसान निरउत्तर है.

अशआर ii

कमतर भी थी गंवारा ,बाकी की गनीमत हैं
दो घूँट बच रहे हैं , साकी भी मस्त अब तो ...

 इस तहे अफ्लाफ जमीं पर, आप कीजिये शुमार
जो खुद को खुदा कहते हैं, और खुद हैं खाकसार ......

तहे अफ्लाफ= आसमान के नीचे
 रंगी -अबाएं इश्क में, ये सितम भी इंतेखाब हैं,
जो कनीज लूट गई जहाँ, तेरा खुल्द लाजवाब हैं .....

रंगी -अबाएं इश्क= रंगीन प्यार में लिपटा हुआ
इंतेखाब= चुना हुआ
कनीज= जालिमो द्वारा ऐय्याशी के लिए रखी गई बेसहारा लडकियां
खुल्द = स्वर्ग

 बर खिलाफ शिकवे
हटाकर तो देखिये
हद-ऐ-नजर पढेगी
बेनियाज दिल हमारा .............रवि विद्रोही

अशआर

रश्क-ए-मुहब्बत गले पडी , एक .दर्द-ए-निहाँ सा लाई हैं
महफूज नहीं अब अश्क मेरा,यहाँ कब से जवानी छाई हैं 


 महबूब बर्हम हमसे, हम किससे करे शिकवा
मुजतिर हैं तबां नाजुक, दिलदार नहीं मिलते 


 सलाम ना सही ,मुस्कराहट दो दीजिये
अपने आने की हमें , आहट तो दीजिये .


 आज हवा ठहरी है, और घटा छाई है..
ना तो ये धूप हैं ना धूप की परछाई हैं.......... 


 आशना ही नहीं हम अभी, मंजिल के किनारों तक
महवे हैरत में जी अपना,दिलरुबाई हैं सितारों तक ..

आशना= परिचित

महवे हैरत = आच्चार्य में डूबा हुआ
दिलरुबाई= हृदय की मनोहर चाहत


 बर्क-ऐ-तपा के आगे ,कोई कैसे बच सकेंगा
अब्रे जहाँ ही क़ज हो, परस्तिश से ना गुजारा ..............रवि विद्रोही

बर्के तपा= बिजली की चमक

अब्रे जहाँ = बादलो का संसार
क़ज= कुटील
परस्तिश = पूजा पाठ/ स्तुति
अन्धो ने हमेशा ही
राज किया हैं और रार मचाई
कुर्बान हुए वीर जिनके
अंगूठे काट लिए गए
अब कोई पूंछ वाला
बचाने नहीं आयेगा
जिसने आग लगाईं थी नगरी में
अब तो अन्धो का एकमात्र सहारा हैं
बेटो के कंधो पर सवार होकर
तीर्थयात्रा पर निकला जाए
उस अमृत को चाटे
जो छिना गया था मक्कारी
और बेईमानी से
एकलव्य के बच्चे
जहर को भी अमृत बना रहे हैं
कटे हुए अंगूठे से नई दुनिया
बना रहे हैं
दर्द की अनुभूति
बता रही हैं कुछ बाहर
आने वाला हैं
कुदरत ने दर्द काहे बनाया ... . ..........रवि विद्रोही

Tuesday 3 April 2012

चिर रहस्य ....


स्त्री के ह्रदय पर लिखे शब्द शायद ही हम पढ़ पाए ...आप स्त्री का सानिध्य इसलिए पाते हो कि आप मस्त हो जाओ और स्त्री इसलिए चाहती हैं कि वह आपकी मस्ती को कम कर दे ..जब वह मांगती हैं किसी के लिए तो जीवन तत्त्व मांग लेती हैं समस्त जीवन को प्रकट कर देती हैं ..मगर इसके बावजूद भी वह एकेलापन महसूस करे तब हम उसके अंतकरण की व्याख्या नहीं कर सकते ..बार मांगती हैं रहती वो रहस्य जहा वो सचमुच विचरण कर सके...पर क्या हम उसे ये दे पाए...

क्या मांगू मै उनसे
जिनके लिए माँगा था शहर
एक नाजुक वक्त में
वो बादलो को मेरे सीने पर
लाकर छोड़ देता है ,
धुप के नीचे
दिल के करीब
उस मुलाक़ात में
ना प्रश्न हैं ना उत्तर
ना निवेदन की तलाश,
मौन आँगन में
चुप-चुप छन कर आती धुप
नाज़ुक नहीं नटखट सी है
जख्म आज उतना बड़ा नहीं
जितना बड़ा प्रतीक्षारत होना,
करवटो में अक्सर
हल्‍की-हल्‍की वो चमक
सुन्न परिस्थितियाँ में
बेजुबान साज सी लगती है,
अनपढ़ बिलकुल ही अनगढ़,
आओ ,चले फिर से मदरसों में
कोई पाठ पढ़े,
स्मिति में छिपे
उन रहस्यों को बांचे
जहा चिर रहस्य रहता है
इतिहासों के बीच,
आओ ,
करीब और करीब आके
उस शहर को फिर से मांगे
जो माँगा था किसी के लिए

मन का विश्लेषण

स्त्री के कथित मन का विश्लेषण ..शायद इसे में गर्व हैं और इसी में साहस भी ...कुछ लोग स्वर्ग को तो तलाश लेते हैं मगर उसके द्वार की चाबी खो बैठते हैं ..मैंने स्त्री के मन में झांका और स्वर्ग की चाबी उसकी आँखों में कैद पाई,, मैंने कहा तुम मेरी आत्मा का दुसरा रूप हो क्या द्वार नहीं खोलोगी ..स्त्री ने झुक कर मेरी आँखों में देखा और कहा ..

कविता शब्द गढ़ती है
खुरदरे भी नाजुक भी
गीले गीले भाव से सने शब्द,
थर थर कांपते शब्द,
पीपल के पात जैसे
झन झन करती कठोर हँसी
ग्रास लिपटी जो
शिराओं से होती हुई
ह्रदय को थरथराती है ,
क्यों गढ़ते हो शब्द
मुझे गूंगी ही रहने दो,
नहीं दे पाउंगी उत्तर
सवाल पूछते शब्दों का
तुम्हारे साथ गहरे उतर कर
उस पोखर में
जहां रात आती है पूछने
चाँद क्यू नहीं निकला ,
औरत को पाने के सौ बहाने करते शब्द
गीले हो जाते है
तुष्टीकरण की आगे,
गूंगी हो जाती है भाषा
फिसलते है शब्द
सीने ने उठते है राग,
डरती हूँ दृढ़ता से
भावी स्वप्न स्नेह-प्रतीती शब्दों से
कही उत्पन ना कर दे अबोध बैराग्य ,
लीप दो मिट्टी हर चीज पर
सुबह सुबह
काले आकाश में खडीया से
लिखाई की है मैंने
शब्द आयेगे
बताने उत्तर .......

Saturday 17 March 2012

विष की लोह भस्म

संगृहीत हैं रुग्नाव्यस्था
विषाक्तता कुचित गति से
आगे बढ़ती हैं
हम विविध कल्पो में
अमृत बाटते हैं
कल्प सेवन करने से पहले
किसने घोला विष ,
हे सूर्य पुत्र
चिरकालीन पथ्य स्थिर और ह्रास हैं
आओ ,
साँसों की सौन्दर्योपचारो में दूषित
अमृत को शुद्ध करे
मन की दुर्लब वातव्याधि
अभी भी जीर्ण हैं ,
ढक दो ढक्कन
इस आयुष्यवर्धक बर्तन का
कुत्सित अव्यवस्था ने अमृत में
लोह भस्म मिलाई हैं ..................रवि विद्रोही

Wednesday 14 March 2012

. पहरेदार

.
मार्क्स हर रात
कब्र से बाहर निकलेंगा
उठ खड़ा होगा कब्र के ऊपर
और छू कर देखेंगा कब्र का हर पत्थर
कहीं किसी मुल्ले पण्डे पादरी  ने
मिटा तो नहीं दिया
कब्र के पत्थर पर से
कार्ल मार्क्स का नाम......
...........रवि विद्रोही

मार्क्सवाद

.
असहनीय चिल्लाहट सुनकर
मार्क्स कब्र के बाहर आया
और बोला सोने दे मुझे
हे निलज्ज इंसानों
तुम्हारे बेतुके विमर्श ने
मेरी  कब्र के हर पत्थर को
हिलाके रख दिया
तुम्हारे खुरचने की आदत ने
मिटा दिया हर पत्थर से
मेरा नाम .......................
.........रवि विद्रोही

Tuesday 13 March 2012

आसमान


क़यामत की रात
मेरी नहीं तुम्हारी हैं
जिसे तुम रोशनी समझ रहे हो
वो कफस की रोशनाई हैं
फूल कोई भी हो
कांटो पर ही अच्छा लगता हैं

.

हकदार

.
जब आसमान अंगड़ाई लेता हैं
और बादलो का झाग उगलता हैं
पृथ्वी आँखे फाड़कर
आसमान को देखती हैं
और कहती हैं
मैंने तेरा बुरा कब चाहा
हे निर्मोही आसमान

नारी की उत्कंठा

उस रात
चाँद नहीं निकला था
आकाश अँधेरे से
सरोबार था
पुरुष ने स्त्री को देखा
उसने उसकी देह की भाषा
पढ़ ली थी,

उसको बहलाया फुसलाया

उसके कसीदे में गीत लिखे
उस पर कविताएं लिखी
उसको आजादी का अर्थ बताया
तरक्की के गुण बताये
आखेट पर निकलने का शौक रखने
वाले की तरह
जगह जगह जाल बिछाया
नारी मुक्ति की बात कही
सपनों के स्वपनिल संसार का
झूठ बोला,

स्त्री ने प्यार भरी आँखों से

उसकी आँखों में झांका,
तीतर की तरह पंख फड़फड़ाता
पुरुष उसको
निरीह सा लगा
वह उसे देखकर मुस्कराई
और सपनो के सुनहरे संसार में
उड़ने लगी

आकाश की उत्कंठा में

लुका-छिपी का खेल देर-देर तक
चलता रहा
थके हुए क्षणों से
जिस चीज पर नारी नीचे गिरी
वह पुरुष का करीने से
बिछाया हुआ बिस्तर था..........................रवि विद्रोही ..

Sunday 11 March 2012

सुखद सपने

अन्धो के इस शहर में
मेरा शीशे का व्यापार है
यहाँ धुंद की मृत्तिका अंधेरी है
फिर भी आँखों में सुनहरे भविष्य की
अकुलाहट का अधिकार है
झुलसी आशाओं की
सफ़ेद अंधेरी रातो में
एक नहीं ना जाने कितने
खुदगर्ज चाँद आ रहे है
मुझे मालूम है दर्पण के भाव ऊँचे है
और अन्धो की सोच ज़िंदा है
उनकी जाग्रत हंसी और सुरमे की सलाई
दर्पण में नजर नहीं आती
अंधी आँखों में आशाओं के सुखद सपने
फिर भी उन्हें भा रहे
और क्या कमाल है जनाब
अन्धो के इस शहर में
खोते जाइये और कहते रहिये
कि पा रहे हैं...

Saturday 10 March 2012

वासना

.
महाभारत पढी और जाना

धृतराष्ट्र के सौ पुत्र थे
और दस रानियाँ
जबकि वो अंधा था ,
अंधे पुरुष की अंधी वासना ,

पांडू के दो पत्नी  थी
और छ पुत्र
जबकि वो नपुकसंक था
नामर्द इंसान की छुपी  हुई  वासना

श्री कृष्ण के
सौलह हज्जार पत्नी  थी
और अनगिनित प्रेयेसी
जबकि वो भगवान था
मस्त भगवान की मस्त वासना

Friday 9 March 2012

कूहसार

किस तार बाहर निकलू ,कूहसार तूफानों से
आँधी ने फलक अपना, तारीक बनाया हैं ........रवि विद्रोही

तार= तरिका
कूहसार= पहाड़
फलक= आसमान
तारीक = घना अन्धेरा / काला

इन पहाड़ जैसे विशाल तूफानों से मैं अपने आप को कैसे बचाऊ ...इस तूफानी बवंडर से कैसे बचू ..
इस बुरी आंधी ने आसमान को भी बुरी तरह ढक लिया हैं ..आसमान पर चारो और घना काला अन्धेरा छा गया हैं ...जहां कुछ भी नजर नहीं आ रहा ...

खुदाई तुझ में ही खुद हैं

नक्श नापेद हैं तेरा ,जलाजिल तू ही मस्दर हैं
तू अश्रफ हैं खुदाया की ,खुदाई तुझ में ही खुद हैं .......रवि विद्रोही

कुछ और हैं

सब थी सहर तब नूर था,नहीं इश्क अब पुरजोर हैं
डूबी हुई इस शाम में ,शायद वो अब कुछ और हैं ......Ravi Vidrohee

सहर= सुबह
नूर= उजाला

हम कैसे पढ़े

गतिहीन हैं अवचेतना,विनोक्ति भी अनुलोम हैं
फैसल -तलब आशुफ्त हैं,तक्बीर हम कैसे पढ़े ...............रवि विद्रोही


विनोक्ति=बिना चंद्रमा की रात
फैसल-तलब जिसका निर्णय होना बाकी हो
आशुक्त=व्याकुल /अस्त-व्यस्त
तक्बीर=नमाज में झुकते , बैठते खड़े होते वक्त पढ़े जाना वाला इश्वर का नाम

तहकीर सुनो

आँखों की तुम तक्सीर सुनो
आंसू में तुम तबशीर सुनो
आँखों ने पाया था कल जो
उस कल की तुम तहकीर सुनो ...........रवि विद्रोही ....

नमाज से तौबा

जाकर खुदा कह दो, अब नमाज से हैं तौबा
तक्बीर के इरादे ,गुनाहागार हो रहे हैं ..............रवि विद्रोही

हसरत नश्तर

ये फराज है जो हसरत नश्तर
क्या कसक है फलक दीवानी में
खिलती है तजम्मुल होठो पर
क्या खूब हँसी ये जवानी में.......................रवि विद्रोही

फराज= उचाई/ बुलंदी
तजम्मुल =सजावट

अन्सफ़ नादान

ख्यालो की निगाहबां में,अन्सफ़ नादान हैं कोई
वो खुद मेरा कल्ब हैं जी ,नहीं मेहमान हैं कोई .......रवि विद्रोही

अन्सफ़= बहुत ही प्यारा
कल्ब - ह्रदय

मुहब्बत की वुसअत


ख्याले खाम नहीं हैं मुहब्बत की वुसअत
खुद खुदाई तस्हील हैं हुश्ने नुबुव्वत में ........रवि
...

Tuesday 6 March 2012

खुमार

.
 आँखों की तुम तक्सीर  सुनो
आंसू की तुम तबशीर  सुनो
आँखों ने पाया था कल जो
उस कल की तुम तहकीर  सुनो ...........रवि विद्रोही ....


तक्सीर=भूल/दोष /अपराध
तबशीर= सन्देश/सुचना
तहकीर= निंदा/अपमान/अनादर

दलित नेतृत्व..

भारत में दलित आज भौचक्के हैं उफाफोह में हैं....आज उन्हें लगता हैं कि  न उनको धर्म में सम्मान मिलता ना समाज में और ना ही राजनीति में ....जाए तो कहाँ जाए.... दरअसल ये सब कुशल, साकारात्मक   इमानदार व   प्रभावशाली  नेतृत्व ना होने की वजह से हैं .बिखरा हुआ संघठन उन्हें और नीचे ले जा रहा हैं...दम्भी , आकारात्मक असंगठित     नेतृत्व कितना भी शक्तिशाली क्यों ना हो अगर वह इमानदार और अपने  कृत्तव्यो के प्रति    समर्पित और उदार और संघठित नहीं  तो  मंजिल से पहले ही दम तौड़ देता हैं..दलित शक्ति को आज एक ऐसे प्रभावशाली नेतृत्व की जरुरत हैं जो सबको एक जगह बाँध ले जो ना  केवल सभ्य , शालीन और  बुद्धीमान हो बल्कि उदार , इमानदार और अपने काम के प्रति समर्पित  हो और सबको एक साथ संघठित कर सके ..प्राभावाशाली  नेतृत्व इतना बल शाली और कद्दावर हो कि इस शक्ति के उबाल को थाम सके और उनकी बहतरी के लिए इमानदारी से काम सके क्योकि इस शक्ति के उबाल में सदियों से दबी अपेक्षाए बहुत ज्यादा हैं और  उनकी अपेक्षाओं व  बहतरी का नतीज़ा शुन्य के आस पास ही मंडराता नजर आता हैं ..अपेक्षायो की भूख  तभी मिट पायेगी जब नेतृत्व वाकई इमानदारी और सच्चाई और संघठित होकर   काम करेगा .....केवल और केवल बिखरी हुई व्यक्तिगत सत्ता की भूख अपेक्षाओं को   बढाती ही हैं घटाती नहीं ..सता की भूख व्यक्तिगत ना होकर सामाजिक हो सबके लिए हो , सबकी बहतरी के लिए हो तभी अपेक्षाए शांत हो पायेगी ....समाज के सब तबको को  साथ लेकर चलने की शक्ति का अभी दलित नेतृत्व में अभी बहुत अभाव हैं  ....सम्मान की भागीदारी तभी मिल पायेगी जब सबको उनके  ..अपेक्षाओं की प्राप्ति ही  सम्मान को आमंत्रित करती हैं ..बिना अपेक्षाओं को प्राप्त किये बिना  कोई भी समाज सम्मान नहीं पा सकता तरक्की के रास्ते पर नहीं बढ़ सकता

Monday 27 February 2012

भारत में जाति , वंश और गोत्र की अवधारणा

भारत में जाति  , वंश और गोत्र  की अवधारणा

जाति.......
आर्य समाज में जाति व्यवस्था नहीं होती थी वहाँ वर्ण व्यवस्था थी ...जाति की व्यवस्था भारतीय समाज में आर्यों के आने से बहुत पहले से ही थी ..जाति का सम्बन्ध व्यक्ति के कार्यो से निर्धारण होता था ..आर्यों  ने   भारत पर आक्रमण करके भारतीय राजनीति  पर अपना प्रभ्त्व स्थापित कर लिया था और भारतीय समाज को अपनी वर्ण वाव्यस्था में मिलाने के लिए एक नया वर्ण   बनाया जिसको शुद्र कहा गया ..भारतीय समाज की मूल वासी परम्परा के मुताबिक़ शुद्रो में जाति व्यवस्था  कायम रही जो आज तक हैं ..भारत मे आर्यों ने अपने प्रभ्त्व के  पश्चात पूरे समाज को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णो में विभक्त कर दिया ..ये ही कारण था आर्यों ने चोथे वर्ण को अपने में मिला तो लिया परन्तु धार्मिक अधिकारों और पूजा पाठ से वंचित रखा .. आज भी ब्राह्मण , क्षत्रीय तथा वैश्य वर्ण हैं आज भी इनमे जाति नहीं होती जबकि शुद्र जाति व्यवस्था  से आज भी जुड़े हुए हैं ..हिन्दू धर्म में शुद्रो की पहचान जाति हैं वर्ण नहीं जबकि बाकी तीनो की पहचान वर्ण से हैं जाति से नहीं ..भारत में दलित अंत्यज या अछूत जातियाँ यद्यपि हिंदू समाज क अंग रही लेकिन    वर्णव्यवस्था में उनका कोई स्थान नहीं है इसलिए शुद्र अपने आप को इन जातियों से उंचा मानते रहे हालाकि जाति व्यवस्था इनमे भी कायम रही ..आज हम शुद्रो का अर्थ दलितों से लगाते हैं किन्तु यह बात भ्रमित हैं दलित शुद्र नहीं वर्ण में नहीं आते बल्कि जो जाति ब्राहमण , क्षेत्रीय,वैश्य या दलित नहीं वो शुद्र हैं

वंश ...
वंश का निर्धारण व्यक्ति के पूर्वज और स्थान से निर्धारित होता था ..आर्यों के वंशज भारत से बाहर के लोग थे जबकि आर्यों के चौथे वर्ण शुद्रो के वंशज मूल भारतीय के ..अब चुकी जाति का सम्बन्ध व्यक्ति के कार्यो से होता था अत किसी विशेष क्षेत्र या जाति  में एक ही काम करने वाले विभिन्न लोग होते थे जो भिन्न भिन्न वंशो से जुड़े होते थे ..प्राचीन अनार्य सभ्यता में इस बात का अधिकार होता था कि व्यक्ति अपना काम बदल सकता  था इसी  काम से उसकी  जाति की पहचान निर्धारित होती थी ..जाति में भिन्न भिन्न वंशो के व्यक्ति जुड़े हुए थे ...वंश यानी एक की व्यक्ति का समूह या उससे उत्पन्न संतति समूह  

गोत्र..
गोत्र की अवधारा मूल भारत  वासियों यानी शुद्रो में नहीं होती थी ..गोत्र की अवधारणा आर्यों की वर्ण व्यवस्था में होती थी ..वहाँ जाति की जगह गोत्र  का प्रचालन था .जिससे जितने बड़े उच्च गुरु या ऋषी से दीक्षा ली वो गोत्र उतना ही बड़ा कहलाया . गोत्र यानी व्यक्ति का वो समूह जो अपने गुरु या  कुलगुरु  से दीक्षा लेकर उस नाम को धारण करता था जिससे उसने धर्म शिक्षा ली..हिन्दू धर्म में सात पीढ़ियों के बाद गोत्र बदलने की परम्परा भी धर्मानुकूल बताई गई हैं ..इसकी देखा देखी हिन्दू धर्म के शुद्र वर्ण में भी गोत्र परम्परा का चलन शुरू हो गया ..एक ही गोत्र में उत्पन्न व्यक्तियों को कुटुंब का रूप माना जाता रहा जिसमे उत्पन्न संतति आपस में भाई बहन माने जाते रहे