Friday 13 July 2012

आबाधा सत्य मुस्काता हैं
कोष्ठबद्धता बिजलियों को कैद
करती हैं
उल्लम्ब छद्मरूप परिहास करता हैं
जब शिराएँ जन त्राता बनती हैं
आनंदित हैं असंयम
घनीभूत होती होठो की हंसी
प्रतारक में तब्दील हो रही हैं
जन समूह दिग्भ्रमित हैं
मैं उनमे राज्य स्वामित्व की इच्छा
जगाता हूँ
मेरी मनोदृष्टी शाब्दिक होकर
लक्ष वेद्धता को ललचाती नजरो से
देखती हैं
जन जन के चिच्छाक्ति जन पट्ठे
अभी भी
मुझे सुनहरी रोशनी ही समझते हैं
जो उनके भाग्य को बदलेगी
आसमान कितना भी साफ़ हो
धरती की प्रतिछाया से दूर ही रहता हैं
प्रकाश छिद्रों से आती रोशनी
अनेक रंगों में सुज्जजित हैं
मगर परछाई का रंग
एक सा ही रहता हैं
मेरे मन की कुदृष्टी मेरे अलावा
किसी को दिखाई नहीं देती
प्रतिसैन्य परतो का विशाल घेरा
उसकी रक्षा करता हैं .......................रवि विद्रोही

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