Tuesday 15 January 2013

मेरा बचपन
पौधघर था
जहां मुझे रोंपा गया
इंसानों की शानदार खेती के लिए

जवानी सीखने की
कार्यशाला थी
जहां मैंने बहुत से
हुनर सीखे
दुसरो को गिराने के लिए

शादी एक ऐसा तौफा थी
जो विज्ञापन की भांती
बाहर से ललचाता था
अन्दर से कोरा खाली था

और मेरा बुढापा
बरगद के पेड़ की तरह हैं
जो अपने नीचे किसी
दुसरे पेड़ को
पनपने नहीं देता........रवि विद्रोही

Tuesday 23 October 2012

गर्व से कहो मैं हिन्दू हूँ,
मैं अपने ही  भाइयो को
नीच और अछूत समझता   हूँ
जाति के नाम पर उनके साथ
घनघौर भेदभाव करता हूँ,
उन्हें हर बात पर प्रताड़ित  करता हूँ
उन्हें जानवरों से भी गया गुजरा
समझता हूँ ,
उनके द्वारा उगाई फसल
और उनके बेर तो खाता हूँ
मगर  उनसे बैर भी रखता हूँ
उनके हर हिस्से को निगल जाता हूँ,
यहाँ तक की अगर वे सर उठाये तो
सरेआम ज़िंदा जलाकर
तमाशा बना सकता हूँ,
उनकी स्त्रीयों की नाक
काट सकता हूँ ,
आओ, हम अपने पूर्वजों की
 विरासत को संभाले,
मुझे इस संस्कृति और सभ्यता को
आगे ले जाना हैं
मुझे गर्व हैं मैं हिन्दू हूँ ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,रवि विद्रोही

Sunday 15 July 2012

अच्छे लोगो की दोस्ती एक ऐसी ज्वाला है, जो आत्मा में अचानक सुलग उठती है और हृदय को तपाकर पवित्र बना देती है, दोस्तों के दिलो में उतर आती है और उसके आस्तित्व में चलकर लगाने लगती है ... .. दोस्ती  वाकई एक सच्ची और सीधे साधे पहुचे हुए फ़कीर   के सामान हैं ...अपने दोस्त मायामृग को देखकर मैंने कभी ये लाइन लिखी थी थी ..

मार्गस्थ महार्घ मन बंधन रुचिकर हैं
यादो के आसपास घूमते हैं कथानक बनकर
मृण्मय प्रतिनाद ह्रदय का आयतन बढाती है
गम्य पल बढ़ने दो धीरे धीरे ....................... रवि विद्रोही....

मार्गस्थ= रास्ते में मिलने वाले
महार्घ= महंगे
मृण्मय= दुनिया दारी
 प्रतिनाद= पहाडो में खुद की वापिस लोटकर  सुनाई वाली आवाज
मृण्मय  प्रतिनाद=संसार में अच्छी या बुरी हमारी आवाज समय समय पर हमको वापिस सुनाई पड़ती हैं ... ह्रदय का आयतन यानी जिसको सुनकर   गम या खुशी  के अहसास में डूबते हैं ..ये अच्छी बुरी प्रतिध्वनी जब हम सुनते हैं हमारे दिलो की धडकण को बढ़ा देती हैं
गम्य पल= सिखने वाला समय

अब हर लाइन का प्रथम अक्षर मिलाइए  ..( मार्गस्थ का मा ..यादो का या  ...मृण्मय का मृ ...गम्य का ग ...).हां हां हां बन गया ना मायावी हिरण यानी यानी मायामृग 
  ....................... रवि विद्रोही....
 खून सने शब्द

नाखून जब शब्द लिखते हैं
रक्त शिराएँ में उबाल आता हैं
रूह बंद हैं ताबूतो में,
इंसान
सभ्यताओ से सवाल करता हैं
इंसानों ने सभ्यताओ की
चादर ओढ़ रखी हैं
रात का अन्धेरा
सभ्यताओं की गहराई नापता हैं
और सुबह का उजाला
इंसानों का प्रवाह देखता हैं ........................RV
स्वपन

स्वपन तब भी थे
जब रात काली थी
स्वपन आज भी हैं
जब दिन का उजाला हैं
आव्वाक रह जाता हूँ
जब लक्षमण रेखा
मटमैले रंग से
लाल रंग में परवर्तित होती हैं
इंगित सपने काषाय रंग बनकर
गद्दारी करते हैं ......................रवि विद्रोही
 हारा हुआ देवता

हे धूर्त चपटी
तुम्हारा चन्दन का टीका
मेरी कुदाल से ज्यादा
उपयोगी नहीं ,
लोक परलोक की बेहूदा बाते
तुम्हारे चालाक दिमांग का ही हिस्सा हैं
जो तुम्हारा पेट पालती हैं
मुझे पता है
तुम्हारे जनेऊ में
मरी हुई जुओं की
गंध आती है
जिनमे जीवन का नहीं
मौत का भय दिखता है ,
तुम उस जन्म के लिए नहीं
अपितु इस जन्म के सुख और भोग में विलुप्त
बिना पसीना बहाए खाने वाले परजीवी हो
मेरे देह का पसीना
और मेहनत से बने पसीने की सुगंघ
तुम्हारे सड़े हुए जनेऊ
और उब्काऊ श्लोको से
लाख गुना बहतर है ,
आओ , मेरे पसीने से
अपने बदन को रगडो
मेरे साथ देवताओं के नहीं
इंसानों के गीत गाओ
खुशबू अपने आप आयेगी
महसूस करो
कि बू की कोई भाषा नहीं होती
और गंध का कोई वजूद नहीं होता ...........रवि विद्रोही
 उदय हुआ सवेरा

बंगाल की खाड़ी के पानी पर
जब सूरज चमकता हैं
कोलाहल का बड़ा सा रेला
पश्चिम की और भागता हैं
शहरो में हलचल होती हैं
अरब सागर त्योरियाँ चढ़ाए बैठा है
सुबह उसे कोई पूछता ही नहीं
छोटी चिड़ियाँ किरणों को देखकर
इधर उधर फुदकती हैं
पुजारी गुस्से से भरा
मूर्तियों को आँख फाड़ फाड़ कर देखता
बडबड़ाता हैं पप्पू की माँ
एक नहीं अनेक रेशमी साड़ी तेरी देह पर
चमकती
यदि लोग और भी धार्मिक बनते
कमबख्त अभी तक एक भी नहीं आया
धूप में बैठा मरियल खाजल कुत्ता
पुजारी के कथन को ध्यान से सुन रहा हैं
दुसरे कुत्ते एक दुसरे की टांग सूँघकर
रात में हुई खुशखबरी को सूना रहे हैं
जग रतनी माँ को कोसती हुई
तमछन्न मन से पानी को निकली
माँ का जल्दी सुबह उठाना उसे
कभी भी अच्छा नहीं लगा
जवानी में सपने भौर में अच्छे लगते हैं
बाबू पहलवान
अभी भी पसीने तर बतर हैं
दंड पेलना अभी भी जारी हैं
सुबह का जागना मुझे भी कभी
अच्छा नहीं लगा
हवा रेगती हुई मुझे जगाती हैं
हे धुप तुम्हारी ताकत को
सोना नसीब ही नहीं
जब तुम रेंगती हो
नींद कोसो दूर भाग जाती हैं
ढलानों पर अभी भी
मजदूर कारखाने से निकल रहे हैं
धूप की कठोर चित्त दाह के साथ
सोने के लिए .......................................रवि विद्रोही