Sunday 15 July 2012

अच्छे लोगो की दोस्ती एक ऐसी ज्वाला है, जो आत्मा में अचानक सुलग उठती है और हृदय को तपाकर पवित्र बना देती है, दोस्तों के दिलो में उतर आती है और उसके आस्तित्व में चलकर लगाने लगती है ... .. दोस्ती  वाकई एक सच्ची और सीधे साधे पहुचे हुए फ़कीर   के सामान हैं ...अपने दोस्त मायामृग को देखकर मैंने कभी ये लाइन लिखी थी थी ..

मार्गस्थ महार्घ मन बंधन रुचिकर हैं
यादो के आसपास घूमते हैं कथानक बनकर
मृण्मय प्रतिनाद ह्रदय का आयतन बढाती है
गम्य पल बढ़ने दो धीरे धीरे ....................... रवि विद्रोही....

मार्गस्थ= रास्ते में मिलने वाले
महार्घ= महंगे
मृण्मय= दुनिया दारी
 प्रतिनाद= पहाडो में खुद की वापिस लोटकर  सुनाई वाली आवाज
मृण्मय  प्रतिनाद=संसार में अच्छी या बुरी हमारी आवाज समय समय पर हमको वापिस सुनाई पड़ती हैं ... ह्रदय का आयतन यानी जिसको सुनकर   गम या खुशी  के अहसास में डूबते हैं ..ये अच्छी बुरी प्रतिध्वनी जब हम सुनते हैं हमारे दिलो की धडकण को बढ़ा देती हैं
गम्य पल= सिखने वाला समय

अब हर लाइन का प्रथम अक्षर मिलाइए  ..( मार्गस्थ का मा ..यादो का या  ...मृण्मय का मृ ...गम्य का ग ...).हां हां हां बन गया ना मायावी हिरण यानी यानी मायामृग 
  ....................... रवि विद्रोही....
 खून सने शब्द

नाखून जब शब्द लिखते हैं
रक्त शिराएँ में उबाल आता हैं
रूह बंद हैं ताबूतो में,
इंसान
सभ्यताओ से सवाल करता हैं
इंसानों ने सभ्यताओ की
चादर ओढ़ रखी हैं
रात का अन्धेरा
सभ्यताओं की गहराई नापता हैं
और सुबह का उजाला
इंसानों का प्रवाह देखता हैं ........................RV
स्वपन

स्वपन तब भी थे
जब रात काली थी
स्वपन आज भी हैं
जब दिन का उजाला हैं
आव्वाक रह जाता हूँ
जब लक्षमण रेखा
मटमैले रंग से
लाल रंग में परवर्तित होती हैं
इंगित सपने काषाय रंग बनकर
गद्दारी करते हैं ......................रवि विद्रोही
 हारा हुआ देवता

हे धूर्त चपटी
तुम्हारा चन्दन का टीका
मेरी कुदाल से ज्यादा
उपयोगी नहीं ,
लोक परलोक की बेहूदा बाते
तुम्हारे चालाक दिमांग का ही हिस्सा हैं
जो तुम्हारा पेट पालती हैं
मुझे पता है
तुम्हारे जनेऊ में
मरी हुई जुओं की
गंध आती है
जिनमे जीवन का नहीं
मौत का भय दिखता है ,
तुम उस जन्म के लिए नहीं
अपितु इस जन्म के सुख और भोग में विलुप्त
बिना पसीना बहाए खाने वाले परजीवी हो
मेरे देह का पसीना
और मेहनत से बने पसीने की सुगंघ
तुम्हारे सड़े हुए जनेऊ
और उब्काऊ श्लोको से
लाख गुना बहतर है ,
आओ , मेरे पसीने से
अपने बदन को रगडो
मेरे साथ देवताओं के नहीं
इंसानों के गीत गाओ
खुशबू अपने आप आयेगी
महसूस करो
कि बू की कोई भाषा नहीं होती
और गंध का कोई वजूद नहीं होता ...........रवि विद्रोही
 उदय हुआ सवेरा

बंगाल की खाड़ी के पानी पर
जब सूरज चमकता हैं
कोलाहल का बड़ा सा रेला
पश्चिम की और भागता हैं
शहरो में हलचल होती हैं
अरब सागर त्योरियाँ चढ़ाए बैठा है
सुबह उसे कोई पूछता ही नहीं
छोटी चिड़ियाँ किरणों को देखकर
इधर उधर फुदकती हैं
पुजारी गुस्से से भरा
मूर्तियों को आँख फाड़ फाड़ कर देखता
बडबड़ाता हैं पप्पू की माँ
एक नहीं अनेक रेशमी साड़ी तेरी देह पर
चमकती
यदि लोग और भी धार्मिक बनते
कमबख्त अभी तक एक भी नहीं आया
धूप में बैठा मरियल खाजल कुत्ता
पुजारी के कथन को ध्यान से सुन रहा हैं
दुसरे कुत्ते एक दुसरे की टांग सूँघकर
रात में हुई खुशखबरी को सूना रहे हैं
जग रतनी माँ को कोसती हुई
तमछन्न मन से पानी को निकली
माँ का जल्दी सुबह उठाना उसे
कभी भी अच्छा नहीं लगा
जवानी में सपने भौर में अच्छे लगते हैं
बाबू पहलवान
अभी भी पसीने तर बतर हैं
दंड पेलना अभी भी जारी हैं
सुबह का जागना मुझे भी कभी
अच्छा नहीं लगा
हवा रेगती हुई मुझे जगाती हैं
हे धुप तुम्हारी ताकत को
सोना नसीब ही नहीं
जब तुम रेंगती हो
नींद कोसो दूर भाग जाती हैं
ढलानों पर अभी भी
मजदूर कारखाने से निकल रहे हैं
धूप की कठोर चित्त दाह के साथ
सोने के लिए .......................................रवि विद्रोही
 उमंग

उमंग परिभाषित हैं
और मन अनंत
पत्थर तू जोर से हिल
जीवन अभी भी
टस से मस नहीं हैं
उमंग का आना
कौन परिभाषित करेंगा
ऊपर से नीचे आना उमंग हैं
या नीचे से ऊपर जाना
पर उमंग होती हैं लुभावावानी
आओ उसे पकडे ..
कस कर ................रवि विद्रोही

Friday 13 July 2012

आबाधा सत्य मुस्काता हैं
कोष्ठबद्धता बिजलियों को कैद
करती हैं
उल्लम्ब छद्मरूप परिहास करता हैं
जब शिराएँ जन त्राता बनती हैं
आनंदित हैं असंयम
घनीभूत होती होठो की हंसी
प्रतारक में तब्दील हो रही हैं
जन समूह दिग्भ्रमित हैं
मैं उनमे राज्य स्वामित्व की इच्छा
जगाता हूँ
मेरी मनोदृष्टी शाब्दिक होकर
लक्ष वेद्धता को ललचाती नजरो से
देखती हैं
जन जन के चिच्छाक्ति जन पट्ठे
अभी भी
मुझे सुनहरी रोशनी ही समझते हैं
जो उनके भाग्य को बदलेगी
आसमान कितना भी साफ़ हो
धरती की प्रतिछाया से दूर ही रहता हैं
प्रकाश छिद्रों से आती रोशनी
अनेक रंगों में सुज्जजित हैं
मगर परछाई का रंग
एक सा ही रहता हैं
मेरे मन की कुदृष्टी मेरे अलावा
किसी को दिखाई नहीं देती
प्रतिसैन्य परतो का विशाल घेरा
उसकी रक्षा करता हैं .......................रवि विद्रोही


देवता सदा ही आरोहित रहे हैं
उनके दौड़ाने की चाह अतिशयता
को लांघती हैं
आगे निकलने की प्रक्रिया
व्याख्यान नहीं सुनती
सोचो कुछ दिन
धरो कुछ धीरज
अतिसुग्राहिता को पूरी तरह
समझ सकने वाले लोग
करोडो के शहर में भी
एक हाथ की अंगुली पर
गिने जा सकते हैं
पासा फेंकने वाले लोग
उपदेशको से दूर ही रहते हैं
सिंहासन आज भी दुर्बल हैं
अहिल्या आज भी रोती हैं
शचि कैसे सहन करती थी
दुर्बल देवताओं का छद्मरूप
आज भी
देवताओं से अवतरित
और देवताओं की पत्नी की योनी से
जन्म का झांसा
उपदेशको के प्रवचनों में
प्रबल वेग भर देता हैं ...................रवि विद्रोही