Monday 11 June 2012

कविता कितनी भी किलिष्ठ और साहित्यिक भाषा में कितनी ही प्रबल लिखी हो अगर वह भाषा पुराण, किंवदंती और मिथक एकेडेमिक्स में लिखी गई तो वह बुराई का प्रतीक हैं और उसका मर जाना ही बहतर हैं ..उस कविता का जीना भी क्या जो नैतिकता के पाश में ना बंधी हो..
प्रेम के नाम पर व्यभिचार और ऐय्याशी से भरा काव्यशास्त्र कूड़े में फेंकने लायक हैं

 समय के स्पन्दन और मुद्दों के कम्पन में
देखो कितना अंतर है
दोनों की शुभ्र कुटील मुस्कानों में
और आत्मीय स्नेह में
ना प्रश्न हैं ना उत्तर
बस इंसान निरउत्तर है.

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