Monday 11 June 2012

अशआर

रश्क-ए-मुहब्बत गले पडी , एक .दर्द-ए-निहाँ सा लाई हैं
महफूज नहीं अब अश्क मेरा,यहाँ कब से जवानी छाई हैं 


 महबूब बर्हम हमसे, हम किससे करे शिकवा
मुजतिर हैं तबां नाजुक, दिलदार नहीं मिलते 


 सलाम ना सही ,मुस्कराहट दो दीजिये
अपने आने की हमें , आहट तो दीजिये .


 आज हवा ठहरी है, और घटा छाई है..
ना तो ये धूप हैं ना धूप की परछाई हैं.......... 


 आशना ही नहीं हम अभी, मंजिल के किनारों तक
महवे हैरत में जी अपना,दिलरुबाई हैं सितारों तक ..

आशना= परिचित

महवे हैरत = आच्चार्य में डूबा हुआ
दिलरुबाई= हृदय की मनोहर चाहत


 बर्क-ऐ-तपा के आगे ,कोई कैसे बच सकेंगा
अब्रे जहाँ ही क़ज हो, परस्तिश से ना गुजारा ..............रवि विद्रोही

बर्के तपा= बिजली की चमक

अब्रे जहाँ = बादलो का संसार
क़ज= कुटील
परस्तिश = पूजा पाठ/ स्तुति

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