Monday, 11 June 2012

कविता कितनी भी किलिष्ठ और साहित्यिक भाषा में कितनी ही प्रबल लिखी हो अगर वह भाषा पुराण, किंवदंती और मिथक एकेडेमिक्स में लिखी गई तो वह बुराई का प्रतीक हैं और उसका मर जाना ही बहतर हैं ..उस कविता का जीना भी क्या जो नैतिकता के पाश में ना बंधी हो..
प्रेम के नाम पर व्यभिचार और ऐय्याशी से भरा काव्यशास्त्र कूड़े में फेंकने लायक हैं

 समय के स्पन्दन और मुद्दों के कम्पन में
देखो कितना अंतर है
दोनों की शुभ्र कुटील मुस्कानों में
और आत्मीय स्नेह में
ना प्रश्न हैं ना उत्तर
बस इंसान निरउत्तर है.

अशआर ii

कमतर भी थी गंवारा ,बाकी की गनीमत हैं
दो घूँट बच रहे हैं , साकी भी मस्त अब तो ...

 इस तहे अफ्लाफ जमीं पर, आप कीजिये शुमार
जो खुद को खुदा कहते हैं, और खुद हैं खाकसार ......

तहे अफ्लाफ= आसमान के नीचे
 रंगी -अबाएं इश्क में, ये सितम भी इंतेखाब हैं,
जो कनीज लूट गई जहाँ, तेरा खुल्द लाजवाब हैं .....

रंगी -अबाएं इश्क= रंगीन प्यार में लिपटा हुआ
इंतेखाब= चुना हुआ
कनीज= जालिमो द्वारा ऐय्याशी के लिए रखी गई बेसहारा लडकियां
खुल्द = स्वर्ग

 बर खिलाफ शिकवे
हटाकर तो देखिये
हद-ऐ-नजर पढेगी
बेनियाज दिल हमारा .............रवि विद्रोही

अशआर

रश्क-ए-मुहब्बत गले पडी , एक .दर्द-ए-निहाँ सा लाई हैं
महफूज नहीं अब अश्क मेरा,यहाँ कब से जवानी छाई हैं 


 महबूब बर्हम हमसे, हम किससे करे शिकवा
मुजतिर हैं तबां नाजुक, दिलदार नहीं मिलते 


 सलाम ना सही ,मुस्कराहट दो दीजिये
अपने आने की हमें , आहट तो दीजिये .


 आज हवा ठहरी है, और घटा छाई है..
ना तो ये धूप हैं ना धूप की परछाई हैं.......... 


 आशना ही नहीं हम अभी, मंजिल के किनारों तक
महवे हैरत में जी अपना,दिलरुबाई हैं सितारों तक ..

आशना= परिचित

महवे हैरत = आच्चार्य में डूबा हुआ
दिलरुबाई= हृदय की मनोहर चाहत


 बर्क-ऐ-तपा के आगे ,कोई कैसे बच सकेंगा
अब्रे जहाँ ही क़ज हो, परस्तिश से ना गुजारा ..............रवि विद्रोही

बर्के तपा= बिजली की चमक

अब्रे जहाँ = बादलो का संसार
क़ज= कुटील
परस्तिश = पूजा पाठ/ स्तुति
अन्धो ने हमेशा ही
राज किया हैं और रार मचाई
कुर्बान हुए वीर जिनके
अंगूठे काट लिए गए
अब कोई पूंछ वाला
बचाने नहीं आयेगा
जिसने आग लगाईं थी नगरी में
अब तो अन्धो का एकमात्र सहारा हैं
बेटो के कंधो पर सवार होकर
तीर्थयात्रा पर निकला जाए
उस अमृत को चाटे
जो छिना गया था मक्कारी
और बेईमानी से
एकलव्य के बच्चे
जहर को भी अमृत बना रहे हैं
कटे हुए अंगूठे से नई दुनिया
बना रहे हैं
दर्द की अनुभूति
बता रही हैं कुछ बाहर
आने वाला हैं
कुदरत ने दर्द काहे बनाया ... . ..........रवि विद्रोही